बुधवार, 1 नवंबर 2017

Indian Films Hindi - 07

मेरे नानू मोत्या, पर्तोस और पालनहार...


मैं और तोन्या नानी धीरे-धीरे अपनी मरीना रास्कोवाया स्ट्रीट पर वापस लौट रहे हैं.
जब हम अपने पोर्च तक आ गए, तो मैंने कहा, “चल, पर्तोस का इंतज़ार करते हैं.
जब से टी.वी. पर फिल्म “डीअर्तन्यान एण्ड थ्री मस्केटीर्स” दिखाई गई, मैं अपने नानू को इसी नाम से बुलाने लगा. नानू की शकल पर्तोस से बहुत मिलती है और अगर उसे किनारे से पोनीटेल बांध दी जाए, तो बिल्कुल दूसरा पर्तोस लगेगा! और वैसे, मैं समझता हूँ, कि नानू को अच्छा लगता है, कि मैं उसे इस नाम से बुलाता हूँ, उन्हें तो मालूम है कि उस फ़िल्म में मुझे पर्तोस कितना अच्छा लगा था.
“ठीक है, इंतज़ार कर लेते हैं,” तोन्या ने जवाब दिया. “मगर, सिर्फ हमारे नानू का, न कि पर्तोस का.”
“अरे, वो पर्तोस ही तो हैं!”
“उसे इस नाम से बुलाने की ज़रूरत नहीं है,” नानी शांति से बात करती है, मगर इसी शांति के कारण समझ में आता है, कि उसे कितना बुरा लगता है – वो ये समझती है, कि मैं नानू को चिढ़ा रहा हूँ, जबकि मैं चिढ़ाने की बात सोचता भी नहीं हूँ. “वो कल मुझसे कह रहे थे, कि इलीच आया था, उनका बहुत पुराना दोस्त, और तुमने सीधे इलीच के ही सामने नानू को पर्तोस कह दिया...नानू ऐसे बड़े ओहदे पर हैं, इत्ते सारे लोगों को जानते हैं...और फिर वो हमारे पालनहार भी तो हैं, न कि पर्तोस.”
“ये पालनहार क्या होता है?” मैं पूछता हूँ.           
“वो हमारे खाने के लिए लाते हैं. “सर्कस” कार मैंने तुम्हारे लिए खरीदी. नौ रूबल्स की है, और मुझे पैसे किसने दिए, क्या ख़याल है, अगर नानू ने नहीं, तो किसने दिए?”
और तभी नानू दिखाई देते हैं. अपने पुराने कत्थई सूट में, जैकेट खुला है, क्योंकि शायद पेट पर नहीं बैठता होगा; फीकी-पीली कैप नहीं थी, और नानू के बचे खुचे भूरे बाल किनारों पर हवा के कारण उड़ रहे थे; गंदे, शायद सूट से भी पुराने जूतों में नानू आ रहे हैं; चेहरे पर मुस्कुराहट है (उन्होंने दूर से ही मुझे और नानी को देख लिया था), जो अक्सर, दूसरे (लगभग सभी) लोगों के लिए होती थी, जो इस समय कम्पाऊण्ड में हैं और नानू से नमस्ते कह रहे हैं.
और मुझे अचानक इतनी ख़ुशी होने लगती है, कि मेरे नानू आ रहे हैं, और अब हम घर जाएँगे, और, हो सकता है, व्लादिक आ जाए, और नानू हमारे साथ ताश का खेल “बेवकूफ़” खेलेंगे! मतलब, मैं पूरे कम्पाऊण्ड में भागता हूँ और पूरी ताकत से चिल्लाता हूँ:
“ना-आ-नू!! पा-आ-लन-हार!!!पा-आ-आ-लनहार!!!!”
कम्पाऊण्ड में मौजूद सारे लोग मुड़ते हैं; मैं नानू के कंधे पर उछलकर चढ़ जाता हूँ, और वो सिर्फ इतना ही दुहराते हैं: “अरे, शोर क्यों मचा रहा है? लोग हैं! लोग हैं! क्यों शोर मचा रहा है?!” (नानू न जाने क्यों हमेशा “शोर मचा रहा है” ही कहते हैं, तब भी, जब “चिल्ला रहा है” या “चिंघाड़ रहा है” कहना बेहतर होता.)      
फिर, जब हम सीढ़ियाँ चढ‌ रहे होते हैं, नानी नानू को समझाती है, कि उसीने मुझसे कहा था, कि नानू पालनहार है, न कि पर्तोस, मगर नानू अपनी ही स्टाइल में क्वैक-क्वैक करते हैं, कि “नानी के पास कोई काम-धाम नहीं है”.
और सुबह तो, आह सुबह! आख़िरकार वो हो जाता है, जिसका मैं कब से इंतज़ार कर रहा हूँ, मतलब, जिसका मुझसे काफ़ी पहले वादा किया गया था.
नानू मुझे सुबह छह बजे जगाते हैं और पूछते हैं कि क्या मैं उनके साथ उनके ऑफ़िस जाना चाहता हूँ, या अभी और सोना चाहता हूँ. बेशक, मैं जाना चाहता हूँ, फिर जब नानू ऑफ़िस जाने के लिए तैयार हो रहे होते हैं, तो मैं वैसे भी उठ ही जाता हूँ, भले ही वो मुझे अपने साथ न ले जाएँ. और अब तो – ओहो! मैं बिस्तर से उठता नहीं , बल्कि उछलता हूँ और तीन ही मिनट में मैं किचन में बैठ जाता हूँ, इसलिए भी कि नानू को दिखाना चाहता हूँ, कि जब समय आएगा और मुझे रोज़ ऑफ़िस जाना पड़ेगा, मैं सब कुछ ठीक-ठाक कर लूँगा, बगैर किसी परेशानी के.
हमारे लोकल स्मोलेन्स्क रेडियो के प्रोग्राम एक के बाद एक चलते रहते हैं, ऐसे जैसे “अनाज काफ़ी मात्रा में होगा”, “बच्चे पहले के मुकाबले ज़्यादा अच्छी तरह आराम करते हैं”; फ्राइंग पैन पर हर तरफ़ मक्खन चटचटा रहा है और उड़ रहा है; फ्रिज में से हर चीज़ बाहर निकाल ली गई है, क्योंकि नानी को लगता है, कि हम शायद वो चीज़ भी चखना चाहेंगे, जिससे इन्कार कर चुके हैं (हालाँकि उसे ये भी मालूम है, कि हमारी 13 नंबर की बस पंद्रह मिनट बाद जाने वाली है), - ये मैं और नानू नाश्ता कर रहे हैं. मुझे अचरज होता है, कि नानी इसी फ्राइंग पैन पर हर चीज़ कैसे कर सकती है, जहाँ से चारों तरफ़ और उसके हाथों पर भी गरम मख्खन उछल रहा है, और वो ऐसा भी नहीं दिखाती कि उसे डर लग रहा है या दर्द हो रहा है, और फिर मैं फ्राइड अण्डा खाता हूँ, ठीक उसी तरह, जैसे नानू अण्डे की ज़र्दी फ़ैलाते हैं, जिससे बाद में उसे ब्लैक-ब्रेड के टुकडे से प्लेट से इकट्ठा कर सकें.  
और बस में, और ट्राम में नानू अपने परिचितों से मिलते हैं और मेरी तरफ़ इशारा करते हुए सबको बताते हैं: “ये मेरा छोटा वाला है”.
एक तरफ़ से तो मुझे फ़ार्मास्यूटिकल गोदाम काफ़ी गंदा, बिखरा-बिखरा और जर्जर लगता है, मगर दूसरी तरफ़ मुझे ये भी लगता है – यही बिखरापन, इधर-उधर पडी हुई इंजेक्शन की छोटी-छोटी बोतलें, चीथड़े, कागज़ और हर तरह का कचरा, ये ही तो आपको सोचने पर मजबूर करता है, कि फ़ार्मास्यूटिकल-गोदाम में गंभीर किस्म का काम होता है...
ज़रूरी फ़ोन करने के बाद, नानू मुझे अपने साथ ये चेक करने के लिए ले जाते हैं, कि ट्रक्स ठीक से तो काम कर रहे हैं. मज़दूर लोग किसी इवान का इंतज़ार कर रहे हैं, जिसके बगैर काम शुरू नहीं हो सकता, और जब नानू को ये पता चलता है कि इवान अभी तक नहीं आया है, अपने मातहतों को समझाते हैं कि असल में ये इवान कौन है. वो ऐसे शब्दों से समझाते हैं, जिनको मुझे अपने नानू से सुनने की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी. मगर पहली बात, मज़दूर राज़ी हो जाते हैं, और दूसरी बात, मुझे ख़ुद को भी अच्छा लगता है, कि मेरे नानू ऐसे शब्दों का इस्तेमाल भी कर सकते हैं. मैं तो, ईमानदारी से, काफ़ी पहले से उन्हें जानता हूँ.
और आख़िर में जब मैं फ़ार्मास्यूटिकल-गोदाम में थक जाता हूँ, तो इस गोदाम के डाइरेक्टर, याने कि मेरे नानू, मुझे ट्राम में बिठाकर घर भेज देते हैं. उसमें क्या है? “जुबिली” स्टॉप तक जाऊँगा, और वहाँ से पाँच मिनट पैदल – बस, मैं घर पहुँच जाऊँगा...

फिर परनानी नताशा और फ़ाइनल...  

ये वही सन् छियासी है, मेरी ज़िंदगी का वो ही महत्वपूर्ण फुटबॉल वर्ल्ड चैम्पियनशिप का मैच, जब मरादोना ने हाथ से गोलबनाया था और सारे रेफ़रीज़ ने उसे ये स्वीकार करके माफ़ कर दिया था, कि ये ख़ुदा का हाथ है; ये वो ही चैम्पियनशिप थी, जिसमें प्लेटिनी ने सेमीफ़ाइनल में निर्णायक पेनल्टी ठोंक दी थी, - वो ही, वो ही! ... ज़ाहिर है, कि मैं सारे मैचेज़ लगातार देखता हूँ, पूरा एक महीना टी.वी. से दूर नहीं हटता हूँ, कमरे वाले अपने मैचेज़ को भी आगे सरका देता हूँ, और जब फ़ाइनल होगा तो मैं, ज़ाहिर है, हरा स्क्रीन बन जाऊँगा और स्टेडियम में मौजूद फ़ैन्स के साथ चिल्लाऊँगा!
और, नानी, ये रही तुम्हारे लिए, बिल्कुल सेंट जॉर्ज-डे की फ़ीस्ट!
टी.वी. चालू करता हूँ, शान से, बिल्कुल नानू की तरह, कुर्सी में बैठता हूँ, उसे टी.वी. के पास सरकाता हूँ, इस तरह कि कुर्सी और चमचमाते हरे स्क्रीन के बीच, जिस पर छोटे-छोटे इन्सान भाग रहे हैं, मुश्किल से डेढ़ मीटर का फ़ासला हो. और क्या? कमेन्टेटर बोलना शुरू करता है, और कमरे में चुपचाप मेरी परनानी नताशा घुसती है.
आज उसका मूड अच्छा नहीं है – ये इस बात से पता चल रहा है, कि उसका हमेशा सलीके से बांधा हुआ रूमाल आज लापरवाही से खिसक गया है, और होंठ एक ख़तरनाक त्रिकोण बना रहे हैं. फिर वो कुछ सुड़सुड़ा भी रही है; मतलब – मुसीबत का इंतज़ार करो.
“अरे,” नताशा कहती है, “चलो, टी.वी. को आराम करने दो”!
समझ रहा हूँ, कि इस “टी.वी. को आराम करने दो” का मतलब मेरे लिए क्या होता है! मैं पूरे महीने भर से फ़ाइनल का इंतज़ार कर रहा था, और सुबह हो गई है, सो तो नहीं सकते, और ऐसे मौके के लिए तो मैं रात को भी नहीं सोता, - और अचानक “चलो...!” भला बताइए!
“मगर ये तो,” मैं तो इतना तैश में आ गया कि मेरी सारी नसें तड़तड़ाने लगीं, “फ़ाइनल है! मरादोना खेलेगा, तिगाना, प्लातिनी, रोझ्तो...”
जितनों को मैं जानता था, उन सबके नाम मैंने गिनवा दिए, मगर नताशा ने दृढ़ता से टी.वी. बंद कर दिया, और आगे ऐसा हुआ: वो – स्टैण्ड के पास खड़ी होकर उस नासपीटे बक्से को बचा रही है, और मैं उसे धकेलता हूँ और बक्से को फिर चालू कर देता हूँ. ऐसा कई बार होता है: मैं चालू करता हूँ, वो बंद करती है – और फिर से स्टैण्ड के पास. हाथापाई शुरू हो गई. ऊपर से, नताशा को तो, जैसे मज़ा आ रहा था, और मैं वाकई में अपना आपा खो रहा था. अब सिर्फ इसलिए नहीं, कि फ़ाइनल था, बल्कि इसलिए कि मुझे ऐसा महसूस हो रहा है, कि मुझे टी.वी. देखने से रोकना इतना आसान है. नताशा जितनी ज़्यादा तैश में आ रही थी, उतना ही मैं भी गरम हो रहा था, और मेरे एक काफ़ी तेज़ धक्के के कारण परनानी धीरे-धीरे दिवान पर गिरने लगी, उसकी आँख़ें धीरे-धीरे गोल-गोल घूमने लगीं, और वो चित हो गई, उसका दायाँ हाथ बेजान होकर एक ओर को लटक गया. बस, सत्यानास...  फ़ाइनल के बारे में मैं, वाकई में, भूल गया, नताशा को कृत्रिम रूप से साँस देने की कोशिश करता हूँ, जैसा मुझे व्लादिक ने सिखाया था, मगर इसका भी कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है...
क्या पुलिस में फोन कर दूँ, कि मैंने अपनी परनानी को मार डाला है?
जिस्म के भीतर – दिल की जगह पर “ठण्डक” छा गई, और इस “ठण्डक” के कारण मेरे दाँत भी किटकिटाने लगते हैं; और तभी दरवाज़े के पीछे से पैकेट्स की सरसराहट सुनाई देने लगती है – ये तोन्या नानी आई है, डिपार्टमेन्टल स्टोर से, उससे मैं क्या कहूँगा?!
मगर मेरे कुछ कहने से पहले ही तोनेच्का बेहद ख़ुश-ख़ुश अंदर आती है और कहती है, कि उसने कण्डेन्स्ड मिल्क के पूरे तीन डिब्बे खरीदे हैं और वो उन्हें औटाकर पेढ़ा बनाएगी, जो मुझे सिर्फ रबड़ी के मुकाबले में ज़्यादा पसंद है.
“सिर्फ ये बात समझ में नहीं आ रही है, कि सब एक साथ औटा दूँ, या पहले दो औटाकर बाद में तीसरा औटाऊँ?”
जैसे ही मैं मुँह खोलता हूँ, जिससे कि अपराध की भावना से कह सकूँ, कि दूध के लिए थैन्क्यू, मगर मैंने गलती से नताशेन्का को मार डाला है, नताशेन्का, अपनी पोज़ बदले बिना, ज़ोर से, पूरे दिल से, रुक-रुक कर कहती है:
“दो ही - उबाल कर औटा, तीन से – ज़्यादा ही चिपचिपा हो जाएगा!”
ज़िंदा है! “ठण्डक” पिघलने लगती है, दाँत अब नहीं किटकिटा रहे हैं; फाइनल की याद आती है, और पेढ़े की कल्पना ने तो मेरी खुशी के प्याले को इतना लबालब भर दिया, कि पूछो मत. नताशा, बुदबुदाते हुए, कि प्योत्र इवानोविच के पास जा रही है (वो टॉयलेट को प्योत्र इवानोविच कहती है), कमरे से निकल गई, जैसे कुछ हुआ ही न हो...(इतना बर्दाश्त इसलिए करना था, कि सिर्फ मुझे डरा सके!)
मैंने फ़ैसला कर लिया कि नताशा वाली बात किसी को भी नहीं बताऊँगा. मैं और तोन्या नानी फ़ाइनल का अंत देखते हैं, नानी पेनाल्टी को “पेनाल्चिक” कहती है और, चाहे कितना ही क्यों न समझाऊँ, कि ऐसा कोई शब्द है ही नहीं, बल्कि सिर्फ “पेनाल्टी” है, फिर भी वह नहीं समझती, “पेनाल्चिक किसलिए”.
शाम को चाय पीते समय, और बातों के अलावा मैं नताशा से हुए झगड़े के बारे में बताता हूँ. नानू क्वैक-क्वैक करते हुए कहते हैं, कि “बूढ़ी औरत कैसे छोकरे को पागल बना सकती है”, और फिर वो कि न्यूज़ आने तक (मतलब, प्रोग्राम व्रेम्याशुरू होने तक) फोर्श्माक (खीमा-अनु.) (एक पकवान, जो नानू बना सकते हैं, और जिसे बनाना उन्हें पसंद है), बना लेंगे, इसलिए हमें किचन से बाहर निकल जाना चाहिए.
मगर मैं नहीं जाता, बल्कि नानू से कहता हूँ, कि न्यूज़ के बाद हम ताश खेलेंगे. और अगर उनका जी चाहे, तो वो मुझे प्रेफ़ेरान्सखेलना सिखा सकते हैं. ये होगी बढ़िया बात! वर्ना तो जब हमारे नाना-दादा खेलना शुरू करते हैं, साथ में व्लादिक के पापा और व्लादिक भी, तो मैं समझ ही नहीं पाता कि क्या करूँ. मगर अब, उम्मीद है, कि जब मैं सीख जाऊँगा तो आसानी से खेल सकूँगा.

उपसंहार

... मैं तोन्या नानी के साथ देर शाम को, करीब-करीब रात ही को समर कॉटेज से लौट रहे हैं. जून का महीना है. अंधेरा होने लगा है, हालाँकि इस समय सबसे लम्बे दिन होते हैं. गंधाती नदी को पार करके पहाड़ी से नीचे उतरते हैं और देखते हैं कि हमसे मिलने नानू आ रहे हैं, जो घर पे नहीं रुक सके, क्योंकि परेशान हो रहे थे: ख़बरों के प्रोग्राम व्रेम्यामें घोषित किया गया था, कि सबसे भयानक तूफ़ान आ रहा है. नानू ने कई बार कहा, कि हम पगला गए हैं, वर्ना ग्यारह बजे तक बगिया में न बैठे रहते, और जैसे ही नानी उन्हें जवाब देती, वो तूफ़ान आ ही गया. बिजली, कड़कड़ाहट, तूफ़ान, हर चीज़ थरथरा रही थी, और मुझे डर भी लग रहा था और ख़ुशी भी हो रही थी, और एक सेकण्ड बाद हमारे बदन पर कुछ भी सूखा नहीं बचा था.
मिलिट्री एरिया की संकरी पगडंडियों से होकर हम एक झुण्ड में भागते हैं; तोन्या नानी और नानू ठहाके लगा रहे हैं, ये देखकर कि मैंने कैसे अपनी सैण्डल्स उतारीं और मोज़े भी उतार दिए और डबरों में छप्-छप् कर रहा हूँ, और उन्हें हँसाने में मुझे खुशी भी हो रही है; मैं डान्स करने लगता हूँ और ज़ोर-ज़ोर से “डिस्को डान्सर” का अपना पसंदीदा गाना गाने लगता हूँ: “गोरों की ना कालों की-ई-ई! दुनिया है दिलवालों की. ना सोना-आ! ना चांदी-ई! गीतोंसे-ए, हम को प्या-आ-आ-र!!!” (गीत का मतलब इस तरह है – चाहे खाने-पीने के लिए हमारे पास पैसा न हो, मगर आज़ादी और गीत – यही मेरी दौलत है). जब हम अपने कम्पाऊण्ड में आ जाते हैं, तब भी मैं गाता रहता हूँ, मगर इतनी ज़ोर से, कि पडोसी भी खिड़कियों से झाँकने लगते हैं; मगर मुझे इससे कोई फ़रक नहीं पड़ता – बल्कि और ज़्यादा गाने और डान्स करने का मन करता है.
घर में हम यूडीकलोन से नहाएँगे, जिससे कि बाद में बीमार न हो जाएं, फिर हम पैनकेक्स खाएँगे, जिन्हें बनाने का परनानी नताशा ने सुबह ही वादा किया था, और कल होगा सण्डे, व्लादिक आएगा और हम पढ़ाई के अलावा कुछ और चीज़ के बारे में सोचेंगे, जैसे बौनों का बिज़नेस करना या नॉवेल्स लिखना...
और कुछ महीनों बाद मैं हमेशा के लिए स्मोलेन्स्क से चला जाऊँगा, जहाँ ये सब हुआ था, जिसके बारे में मैंने आपको बताया है. एक नई ज़िंदगी शुरू होगी, नए हीरोज़ के साथ, नए कारनामों के साथ, जिनके बारे में मैं यहाँ नहीं बताना चाहता, क्योंकि उनके लिए दूसरी किताब की ज़रूरत है. हो सकता है, वो ज़्यादा गंभीर, ज़्यादा दुखी हो...और ये वाली, अगर ये हँसाने वाली, ख़ुशी देने वाली बनी हो, तो इसे यहीं ख़तम करना अच्छा है. उम्मीद करूँगा, कि दुबारा ऐसा वक्त आएगा, जब हम ख़ुशी-खुशी सिनेमा थियेटर्स में जाएँगे और इण्डियन फिल्म्स देखेंगे. तब मैं नए इण्डियन एक्टर्स से भी उसी तरह प्यार कर सकूँगा, जैसे मैंने मिथुन चक्रवर्ती और अमिताभ बच्चन से किया था, और फिर से बारिश में नंग़े पैर डान्स करते हुए, इण्डियन गाने गाऊँगा, पड़ोसियों को अचरज से अपनी-अपनी खिड़कियों से बाहर झाँकने दो और आश्चर्य करने दो – उसी तरह, जैसे कई साल पहले हुआ था...




परिशिष्ठ


                             
आन्या आण्टी और अन्य लोग...
( मेरी बिल्डिंग के कुछ लोगों के बारे में)


हमारी मंज़िल पर रहने वाली आन्या आण्टी को, मैं और मम्मा न जाने क्यों उसके सरनेम शेपिलोवा से ही बुलाते हैं. ये सरनेमउस पर एकदम फिट बैठता है, वो इस भली औरत की अच्छाई को गहराई से प्रकट करता है.
तो, वो खूब तेज़ और चतुर है, ऊँचाई करीब एक सौ सत्तावन से.मी थी (उसने ख़ुद ही बताया था), वो बेहद पतली थी; चंचल, तीखी, उत्सुक आँखें और बेहद मज़बूत, हालाँकि, पतले-पतले हाथ थे उसके. हाथ तो उसके वाकई में बेहद मज़बूत थे, क्योंकि वो हर रोज़ काफ़ी दूर से चीज़ों से, खाने पीने के सामान से और सब्ज़ियों से, और ख़ुदा जाने और भी किस किस चीज़ से भरे हुए बड़े-बड़े थैले लाती थी. ये सब किन्हीं आण्टियों के लिए, अंकल्स के लिए, दादियों और दादाओं के लिए, जो या तो उसके परिचित होते थे, या सिर्फ जान-पहचान वाले. आन्या आण्टी उनकी मदद करती है, क्योंकि वे “जीवन के कठिन हालात में हैं”.
वैसे मैं और मम्मा तो कठिन हालात में नहीं रहते हैं, मगर, शेपिलोवा की नज़र में, हमें भी मदद की ज़रूरत है, क्योंकि हम लगातार काम करते रहते हैं. और वह बाज़ार से हमारे लिए सब्ज़ियाँ, फल और हर वो चीज़ ले आती है, जिसकी, उसके हिसाब से हमें ज़रूरत होती है. पैसे हम, बेशक, देते हैं, मगर मैं पूरे समय सोचता हूँ कि ख़ुद भी, आमतौर से, बाज़ार जाकर खीरे और टमाटर ला सकता हूँ. मगर आन्या आण्टी कुछ और ही सोचती है:
“रचनात्मक प्रक्रिया के लिए सम्पूर्ण समर्पण और आंतरिक शक्तियों की बेहद एकाग्रता की ज़रूरत होती है!”
मतलब, हमारी पडोसन शेपिलोवा की राय में, अगर मैं दिन का कुछ हिस्सा कहानी या लघु उपन्यास लिखने में खर्च करता हूँ, तो बचे हुए समय में टमाटर खरीदने में कोई तुक नहीं है. मैं उससे बहस करता, मगर वो बिल्कुल फ़िज़ूल होता. आन्या आण्टी ज़िद्दी है, फ़ौलाद की तरह. किसी भी तरह से उसे मोड़ नहीं सकते. और अपनी बात वो हमेशा मनवा लेती है, चाहे कितनी ही बाधाएँ क्यों न आएँ.
मिसाल के तौर पर ये देखिए. कुछ दिन पहले मम्मा ने आन्या आण्टी से कहा कि वह उससे ऊनी जैकेट और कुछ और भी चीज़ें अपने ऐसे परिचितों के लिए ले ले जो बहुत अमीर नहीं हैं, जिन्हें ये उपयोगी लगें (ये तो आपको पता ही है, कि शेपिलोवा की ढेर सारे लोगों से पहचान है). मगर आन्या आण्टी को ख़ुद ही ये भूरा ऊनी जैकेट बहुत पसन्द आ गया. उसने फ़ैसला कर लिया कि उसे अपने लिए रख लेगी. और इतवार की सुबह, करीब साढ़े आठ बजे, मतलब, जब हम अभी सो ही रहे होते हैं, दरवाज़े की घण्टी बजती है.
“तानेच्का, ये मैं हूँ,” दरवाज़े के पीछे से शेपिलोवा चिल्लाती है.
मेरी मम्मा, जिनका नाम तान्या है, दरवाज़ा खोलती है.
“मैंने आपको जगा तो नहीं दिया??! नहीं? मैं अभी अभी बाज़ार से आई हूँ, ये रहे खीरे, टमाटर, संतरे, सेब, खट्टी कैबेज! ले लीजिए. और वो, भूरा वाला जैकेट, मैं अपने लिए रखना चाहती हूँ, चलेगा? मैं उसके लिए आपको पैसे देना चाहती हूँ. ज़रूर देना चाहती हूँ, क्योंकि वो चीज़ ऊनी है, बेशक महँगी और बढ़िया है!”
और कुछ भी कहने का मौका दिये बिना उसने एक हज़ार रूबल्स बढ़ा दिए, उस पुराने जैकेट के लिए, जिसकी मम्मा को बिल्कुल ज़रूरत नहीं थी, और उसके लिए शेपिलोवा से पैसे लेना बहुत बुरा होता.
“कैसे पैसे!” मम्मा को ताव आ गया. “आन्या! ये बात सोचो भी मत! मैंने यूँ ही वो सब दे दिया था, वो बिल्कुल ग़ैरज़रूरी चीज़ें हैं!”
“मगर जैकेट तो बेहद ख़ूबसूरत है!” अपमानित होकर आवाज़ चढ़ाते हुए आन्या आण्टी बहस पे उतर आई. “कम से कम पाँच सौ लीजिए!”
“नहीं!”
“तीन सौ!”
“नहीं!” मेरी मम्मा भी इस हमले से गड़बड़ा गई.
“एक सौ ले लीजिए, ख़ुदा के लिए!”
“बस, आन्या आण्टी,” मैं बीच में टपका. “ख़ुदा के लिए यहाँ से जाइए. आपका बहुत-बहुत शुक्रिया.”
हताश होकर वो दरवाज़े की तरफ़ जाती है, मगर लैच घुमाने से पहले मुड़कर कहती है:
“कोई बात नहीं. मैं कोई और रास्ता निकालूँगी.” और सोच में डूबकर सिर हिलाती है.
दूसरे दिन शाम को एक बड़ा भारी, शायद एक लिटर का, लाल कैवियर का (स्टर्जन मछली के अण्डों का व्यंजन) डिब्बा लाती है, जिसके लिए इस धमकी से भी पैसे नहीं लेती, कि हमारी दोस्ती ख़तम हो जाएगी. इस कैवियर की कीमत, मेरे ख़याल से एक हज़ार से भी ज़्यादा होगी. आन्या आण्टी ने अपनी बात पूरी कर ली, और समझ सकते हैं कि उसने जैकेट की कीमत चुका दी...
...आन्या आण्टी की तरफ़ हम बाद में ज़रूर लौटेंगे, क्योंकि वो हमारी सबसे घनिष्ठ पड़ोसन है, ऐसा कह सकते हैं, और इसके अलावा वो इस कहानी की प्रमुख हीरोइन है. मगर मैं कुछ और हीरोज़ से आपको मिलवाना चाहता हूँ.
तीसरी मंज़िल का यारोस्लाव. ओह, ये आजकल की हाउसिंग-सोसाइटियों के नौजवानों ज्वलंत प्रतिनिधि है! रोमा ज़्वेर ने शायद अपना गीत “ गलियाँ-मुहल्ले”, ज़ाहिर है, रूसी गलियों और मुहल्लों के ऐसे ही निवासियों के लिए लिखा है...
यारोस्लाव – ईडियट है. निकम्मा नौजवान, ढेर सारी ख़तरनाक और, मैं तो कहूँगा, बेहद ख़तरनाक आदतें हैं उसकी, हमेशा ख़ुश रहता है, झगडालू और अपने कभी छोटे, तो कभी लम्बे बालों को इंद्रधनुष के अलग-अलग रंगों में रंगता है. वह उसी तरह के नौजवानों और लड़कियों के ग्रुप का सदस्य है, जिनमें से कुछ हमारी, और कुछ अगल-बगल की बिल्डिंग्स में रहते हैं, और ये ग्रुप, हमेशा रात के दस बजे के बाद हमारी मंज़िल की कचरे की पाइप के पास जमा होता है. ऐसा लगता है कि यारोस्लाव और उसके दोस्तों का किन्हीं ख़ास तबकों में अच्छा ख़ासा दबदबा है, क्योंकि मॉस्को के अलग अलग हिस्सों के निवासी अक्सर शाम को, हम सबके लिए मुसीबत बनकर हमारी बिल्डिंग में आ धमकते हैं, जिससे अच्छी तरह वक्त  बिता सकें.
रात के करीब दो बजे तक बिल्डिंग में शोर-गुल होता रहता है, हँसी और चीखें सुनाई देती हैं. नौजवान और लड़कियाँ जीवन के प्रवाह में बहते रहते हैं. बिल्डिंग में रहने वाले, जिनमें मैं भी शामिल था, पहले तो सुकून और ख़ामोशी के लिए लड़ने की कोशिश करते थे, मगर फिर रुक गए. पहली बात, इसलिए कि ये बिल्कुल फ़िज़ूल था, और दूसरे, इसलिए, कि यारोस्लाव और उसके दोस्त सिर्फ चिल्लाने वाले और खिड़कियाँ तोड़ने वाले डाकू बदमाश ही नहीं थे. मतलब, खिड़कियाँ वो बेशक तोड़ते थे, और हमारी दूसरी मंज़िल का काँच बेतहाशा मार खाकर कई बार चटक कर उड़ चुका है, मगर अचरज की बात ये है, कि बाद में यारोस्लाव और उसका पक्का दोस्त वाल्या च्योर्नी बिना भूले उसे फिट कर देते थे. ऊपर से, अपनी बैठक के बाद सुबह यारोस्लाव कचरे के पाइप के पास झाडू लेकर आता और सब कुछ अच्छी तरह साफ़ कर देता. और कुछ दिन पहले तो इसका उलटा ही हुआ: रात भर धमाचौकड़ी मचाने के बाद, उन लोगों से हुए हंगामे के बाद, जो रात में इन खुशी और बदहवासी से मचल रहे नौजवानों को शांत करने आये थे, यारोस्लाव ने सुबह-सुबह बाहर निकल कर बिल्डिंग के प्रवेश द्वार के पास वाली खिड़की पे बियर का डिब्बा, या ऐसी कोई चीज़ नहीं, बल्कि गमले में लगा हुआ सचमुच का फूल रख दिया! ये वाकई में “धूल का फूल” था!
फूल तो, कहना पड़ेगा, कि काफ़ी अजीब था, और यारोस्लाव ने उसे कहाँ से ढूँढ़ा था – पता नहीं. वो, कुछ भद्दा सा था, या तो मुरझाया हुआ था, या फिर उसे चबाया गया था, किसी पुराने गमले में लगा था, मगर पूरी तरह ताज़ा था और खिल रहा था, बगैर किसी ओर ध्यान दिए. खिल रहा था! जब मैंने एक बार देखा कि यारोस्लाव फूल को पानी भी दे रहा है, तो मुझे ज़रा भी गुस्सा नहीं आया. बात एकदम सही है, न जाने कैसे-कैसे कूड़े-करकट के ढेर में सुंदरता अपना बसेरा ढूँढ़ लेती है!
मैं और यारोस्लाव एक दूसरे को सिर्फ हैलो कहते हैं, इससे हमारा संवाद सीमित हो जाता है. उस समय मैंने उससे फूल के बारे में कहा था, कि, ज़ाहिर है, सिर्फ वही बिल्डिंग को ऐसा बना देता है, कि घुसने में डर लगे, और फिर वहाँ फूल लगा देता है, मगर यारोस्लाव ने मुस्कुराकर चिल्लाते हुए, काफ़ी गहरे अंदाज़ में कहा: “बिज़ पालेवा” – बस ऐसा हो था वो. (एक लोकप्रिय गीत के बोल, इन शब्दों का अर्थ है, “बिना ढोल बजाए, निरर्थक”). इन शब्दों का क्या मतलब है, मैं समझ नहीं पाया, हालाँकि, ईमानदारी से स्वीकार करता हूँ, कि कुछ देर तक उनके असली मतलब के बारे में सोचता रहा...
कभी-कभी ऐसा भी होता है, कि बिल्डिंग में शांति है, और शेपिलोवा भी न कुछ ला रही है, न कोई सुझाव दे रही है. तब हो सकता है, कि अचानक फोन बजने लगता है. और रिसीवर में, जब आप उसे उठाते हो, तो उत्तेजित, ज़ोर की, जैसे कम से कम कहीं आग लगी है, एक औरत की, भर्राई हुई आवाज़ कहती है:
“तो! (विराम) तो! तो!”
ये प्रकट हो रही है मेरी अगली हीरोइन, जिसका नाम आपको जल्दी ही पता चल जाएगा.
“हैलो,” आप कहते हैं, “कौन बोल रहा है?”
कोई प्रतिक्रिया नहीं, उल्टे – मेरे सवाल का सवालिया जवाब मिलता है.
“मैं किससे बात कर रही हूँ? कौन हैं आप? मैं किस नंबर पे आ गई?!”
“आपको कौन चाहिए?” मैं पूछता हूँ.
फिर कोई प्रतिक्रिया नहीं. रिसीवर रख देने को जी चाहता है, मगर उसमें फिर से और ऊँची, परेशान आवाज़ में पूछा जाता है:
“क्या ये तान्या का बेटा है?! सिर्गेइ?!”
“हाँ, मैं,” मैं कहता हूँ.
“सेब!!!” रिसीवर में ज़ोर से चिल्लाते हैं.
मालूम नहीं, कि क्या प्रतिक्रिया देना चाहिए, मगर फिर कहता हूँ, कि अच्छा है, कि सेब हैं.
“खूब सारे सेब हैं!!!”
“बहुत अच्छा,” मैं कहता हूँ.
“ये,” पहले ही की तरह उत्तेजित-परेशानी से रिसीवर जानकारी देता है, “ल्येना विदूनोवा है, तीसरी मंज़िल वाली, ऊपर वाली पडोसन! किसी ने मेरे शौहर को दो बैग्स भर के सेब दिए हैं. उन्हें खा नहीं सकते. टूटे-टूटे हैं! मुरब्बे के लिए!!! आधे ले लो!!!”
कह ऐसे रही है, कि साफ़ पता चल रहा है: अगर नहीं लूँगा, तो कोई भयानक बात हो जाएगी, क्रांति जैसी. उससे पूछने का खूब मन हो रहा था, कि इतनी बदहवास क्यों है. मगर पूछना बेकार है: ल्येना विदूनोवा – दुबली-पतली, लम्बी, अधेड़ उम्र की  औरत है, और वो हमेशा बदहवास ही रहती है. चाहे कहीं भी जा रही हो, किसी से भी बात कर रही हो – वो हर काम इस तरह करती है, मानो युद्ध चल रहा हो, और हम सबके चारों ओर दुश्मन का मज़बूत घेरा पड़ा हो.
मैं, बेशक, थैन्क्यू कहता हूँ, मगर ये ज़रूरी नहीं है.
“बढ़िया! अभी सिर्गेइ लेकर आयेगा!”
और उसका शौहर सिर्गेइ, मेरा हमनाम, टूटे हुए सेबों की थैली लाता है, और साथ ही तीन सौ रूबल्स भी देता है, जो ल्येना ने करीब सात महीने पहले मुझसे तीन दिनों के लिए उधार लिए थे.
“थैन्क्यू!” मैं कहता हूँ और चुपचाप सेबों को किचन में ले जाता हूँ.
अब मैं और मम्मा हमेशा ओवन में सेब पकाते हैं और उन्हें शक्कर के साथ खाते हैं.          
और हमारी बिल्डिंग की छठी मंज़िल पे कुत्तों वाली अक्साना रहती है. कुत्तों वाली – इसलिए, कि ऐसा एक भी बार नहीं हुआ, कि चाहे दिन हो या रात, गर्मियाँ हों या सर्दियाँ, मैं घर से बाहर निकला और कुत्ते के साथ घूमती हुई अक्साना से न मिला होऊँ. और हर बार वो अलग-अलग कुत्तों के साथ घूमती है. उसके सारे कुत्ते छोटे हैं, घर के भीतर रहने वाले हैं, मगर बेहद गुस्सैल हैं और हमेशा भौंकते रहते हैं. वो कुत्ते क्यों बदलती है? इसलिए कि अक्साना के पास एक ही कुत्ता ज़्यादा दिन नहीं रहता. पहले, करीब दो साल पहले, उसके पास विकी था, लाल बालों वाला. उसने भौंक-भौंककर पूरी बिल्डिंग को हैरान कर दिया और मर गया.
“बीमार हो गया था,” अक्साना ने कहा.
फिर आया एक काला कुत्ता, वैसा ही जैसा विकी था, मगर इसका नाम था जस्सी. अक्साना के हाथ से छिटक कर बिल्डिंग के पीछे भागा, हमारी बिल्डिंग रास्ते की बगल में ही है, और कार के नीचे आ गया. अब अक्साना के पास है बेली. सफ़ेद है, काले धब्बों वाला. ये भी ऐसा भौंकता है, जैसे किसी ने उसे घायल कर दिया हो.       
ठण्ड के दिनों में अक्साना अपने कुत्तों को ख़ास तरह के कोट पहनाती है, जिससे कि उन्हें ठण्ड न लगे. मगर कुत्तों के अलावा अक्साना इस बात के लिए भी मशहूर है, कि उसे हमारी बिल्डिंग के हर इन्सान के बारे में सब कुछ मालूम है.
“नौंवीं मंज़िल वाली दीना को लड़की हुई है.”
“फ़ेद्या पलेताएव मर गया.”
“वेरा तरासोवा पर मुकदमा चलेगा.”
मैं तो अक्सर ये ही समझ नहीं पाता हूँ, कि वो किसके बारे में बता रही है, मगर कोई प्रतिक्रिया तो देनी ही होती है. ख़ैर, किसी तरह कुछ कह देता हूँ, हमेशा नहीं, शायद, कभी कभार.    
मगर अक्साना से मेरी बातचीत अक्सर इस बात पर आकर रुक जाती है, कि मेरी शादी हुई है या नहीं, और मैं कब शादी करने वाला हूँ. पहले ये सवाल मुझसे अक्साना की मम्मी ताइस्या ग्रिगोरेव्ना अक्सर पूछती थी. मगर बाद में ताइस्या ग्रिगोरेव्ना के पैरों में दर्द रहने लगा, और उसने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया. इसलिए, अब उसकी जगह अक्साना ने ले ली है.
स्टोर में जाता हूँ, वहाँ कुछ ख़रीदता हूँ और घर वापस लौटता हूँ. आन्या आण्टी फोन करती है.
“सिर्योझ, चाय पीने आ जा! चीज़-पैनकेक बनाया है!”
ख़ुशी-ख़ुशी जाता हूँ, क्योंकि मैं यहाँ चाहे जो भी कहूँ, आन्या आण्टी से मैं बहुत अच्छी तरह बर्ताव करता हूँ...
आन्या आण्टी को अपने चारों तरफ की दुनिया में बेहद दिलचस्पी है, जो टी.वी. के पर्दे पर सबसे अच्छी तरह दिखाई जाती है, और साप्ताहिक अख़बार “आर्ग्युमेन्ट्स एण्ड फैक्ट्स” के पन्नों पर.
जब मैं चाय पी रहा होता हूँ, आन्या आण्टी के चारों टी.वी. चल रहे होते हैं, एक-एक कमरे में एक-एक टी.वी और किचन में भी. उन पर अलग अलग चैनल्स चल रहे हैं, वॉल्यूम काफ़ी तेज़ है, क्योंकि शेपिलोवा ऊँचा सुनती है. मगर ख़ुद आन्या आण्टी इस समय संकरे कॉरीडोर में फोन पर बात कर रही होती है:
“हाँ, वालेच्का, सिर्फ कड़े गद्दे पर सोना चाहिए! क्या?!”
“उच्कुदू-ऊक, तीन कुँए!” किचन का टी.वी. गा रहा है.
“फिर रूस में साल के शुरू से शरणार्थियों का आना कम नहीं होगा, इस बात पर भी, निःसंदेह ध्यान देने की ज़रूरत है,” हॉल वाला टी.वी. सूचना दे रहा है.
“हाँ, हाँ!” आन्या चिल्लाती है. “और सिर्फ बिना तकिए के!”
“इसाउल, इसाउल, घोड़े को क्यों छोड़ा!” कॉरीडोर से सटे, छोटे कमरे वाला टी.वी. लगातार ऊँची आवाज़ में अपने बारे में याद दिला रहा है.
“वालेच्का, क्या?! नहीं, ज़रूरत नहीं है! और ज़्यादा घूमना फिरना चाहिए! गति ही - जीवन है! वालेच्का, तेरी आवाज़ बिल्कुल सुनाई नहीं दे रही है!”
फिर जब बातचीत ख़त्म हो जाती है, चाय पी चुकी होती है, तो पता चलता है, कि मुझे मुर्गी-आलू ज़रूर खाना पडेगा (अपने अनुभव से मैं जानता हूँ, कि जब तक आन्या की पेश की हुई हर चीज़ खा नहीं लोगे, उसके घर से बाहर नहीं निकल सकते). मैं खाता हूँ, और शेपिलोवा हॉल में बड़ी गोल मेज़ के पास बैठ कर, साप्ताहिक अख़बार “आर्ग्युमेन्ट्स एण्ड फैक्ट्स” के ऊपर रंगबिरंगा पेन लेकर झुकी होती है. आन्या सिर्फ यही अख़बार पड़ती है, और न जाने अपने किसी सिद्धांत के तहत कुछ और नहीं पढ़ती. मैंने उसे हमारी मशहूर हस्तियों के जीवन के बारे में, प्रकृति के दिलचस्प तथ्यों के बारे में, वैज्ञानिक आविष्कारों के बारे में अलग-अलग तरह की किताबें प्रेज़ेंट कीं, मगर मैंने ग़ौर किया कि उन सबका ढेर किचन में बेसिन के पास रखा है, फेंकने के लिए, या उनका इसी तरह का कुछ करने के लिए. “आर्ग्युमेन्ट्स एण्ड फैक्ट्स” आन्या को वो दूर दराज़ की जानकारी देता था, जो उसकी ज़िंदगी के लिए ज़रूरी है.              
विसोत्स्की के बारे में लेख, जिससे उसके बारे में फ़िल्म “विसोत्स्की. थैन्क्यू फॉर बीइंग अलाइव” रिलीज़ होने के बाद बचना मुश्किल था. एक छोटा सा लेख, इस बारे में, कि दोस्तों, चाहने वालों की भीड़ में भी वह भीतर से अकेला था, लाल रंग की तिहरी लाइन से रेखांकित किया जाता है. इस बारे में जानकारी को, कि रीढ़ की हड्डी को सहारा देने के लिए कड़े गद्दे पर, और जहाँ तक संभव हो, बिना तकिए के सोना चाहिए, पूरी तरह हरे रंग से पोत दिया गया था. गाल्किन की फोटो के चारों ओर, न जाने क्यों, काला घेरा बना दिया गया था. संक्षेप में कहूँ तो, सचमुच का संपादन चल रहा था, अगर इसे रचनात्मक काम न कहें तो! बाद में इस सबकी कतरनें काटी जाती हैं और तीसरे, सबसे छोटे कमरे में एक छोटी सी मेज़ पर गड्डियाँ बनाकर रख दी जाती हैं.    
अख़बार की महत्वपूर्ण जानकारियों को अलग-अलग रंगों से रेखांकित करने और उनकी कतरनें काटने के इस थका देने वाले काम से निपटकर आन्या आण्टी ज़िद करती है कि मैं कल उसके साथ थियेटर जाऊँ. थियेटर मुझे बहुत अच्छा तो नहीं लगता, किसी तरह मैं इनकार कर देता हूँ, मगर आन्या की इस पेशकश से जुड़ी एक और बात बताना चाहता हूँ.
मेरी प्यारी, बढ़िया मेहमाननवाज़ी करने वाली पड़ोसन को थियेटर्स और कॉन्सर्ट्स जाना बहुत अच्छा लगता है. वहाँ, जब शो चल रहा होता है, तो वो ज़रूर सो जाती है, क्योंकि अपनी तूफ़ानी गतिविधियों से वो बेहद थक जाती है, ऊपर से नींद न आने की शिकायत भी रहती है. मगर इससे उसे बाद में शो के बारे में बताने में कोई बाधा नहीं पड़ती, वह मज़े से बताती है कि शो कितना मज़ेदार था और उसे हर चीज़ कितनी पसंद आई थी, म्यूज़िक भी, और ड्रेसेज़ भी. आन्या आण्टी को हर शो अच्छा लगता है, जो वो देखती है. बस एक बार, जब उसे शोपसंद नहीं आया था, ‘बल्शोय थियेटर में हुआ था, जहाँ “कार्मेन” दिखाया जा रहा था. उसे इस बात पर बेहद गुस्सा आया, कि पुराने ढंग की पोषाकों के बदले, कलाकारों ने किसी किसी दृश्य में स्विमिंग सूट पहने थे. लगता है, ‘बल्शोयथियेटर में किसी वजह से वह सो नहीं पाई थी...
आन्या आण्टी के घर से निकलता हूँ, भरपेट खाकर और तरह-तरह के ख़यालों से भरा हुआ, और खिड़की के पास कचरे की पाइप के पास से यारोस्लाव जोश से कहता है “ग्रेट!”. वहाँ काफ़ी लोग जमा थे.
“नमस्ते,” मैं जवाब देता हूँ.
मुझे अचरज होता है, कि नीचे से कुत्ते वाली अक्साना, अपना सवाल लिए, कि मैं कब शादी कर रहा हूँ, नहीं आ रही है...
हाल ही में मुझे काफ़ी लम्बे समय के लिए दूसरे शहर जाना पड़ा था. वापस लौटने के बाद मेरे मन में ख़याल आया कि चिल्लाते हुए टी.वी., शाम की उत्तेजित टेलिफ़ोन की “तो!”, यारोस्लाव और अक्साना के कुत्तों के बिना मैं बोरहो गया था. मैं समझ गया कि ये सब लोग उससे भी ज़्यादा मुझे प्यारे हैं, जितने की मैं कल्पना करता था, और मैंने उनके बारे में कहानी लिखने का फ़ैसला किया.
स्टेशन से घर आने के बाद कोई कमी मुझे खटक रही थी, जब तक आन्या ने दरवाज़े की घण्टी बजाकर ये नहीं कहा, कि कल बाज़ार में मश्रूम्स का अचार खरीदने जाएँगे. मैं कचरे की बाल्टी रखने बाहर निकला, और यारोस्लाव ने प्रॉमिस किया कि कल ही वो और च्योर्नी मिलकर टूटा हुआ काँच लगा देंगे, जो अभी-अभी च्योर्नी के सिर की मार से टूट गया था, इस टूटे हुए काँच के बीच से मैंने अक्साना को देखा, जो अपने बेली को बुला रही थी, और ल्येना विदूनोवा को भी देखा, जो स्टोर्स से सामान का हरा थैला ला रही थी. “सब ठीक है,” मैंने अपने अंदर की आवाज़ सुनी, “ तू घर पहुँच गया है”.
और अप्रैल-मई में, जब गर्मी पड़ने लगेगी, अक्साना और ल्येना शाम को हमारी बिल्डिंग के पास वाली छोटी सी बेंच पर बैठा करेंगी और, मुझे देखते ही, ज़िद करेंगी कि मैं गिटार लाकर बजाऊँ. मैं बजाऊँगा, और तब अक्साना सोच में डूबकर कहेगी:
“क्या गाता है! – और अब तक शादी नहीं हुई!”
मेरे दिल में ये ख़याल आया कि, वाकई में, ऐसा सोचना सही नहीं है, मगर मई की हवा इस ख़याल को हरे-हरे कम्पाऊण्ड्स की गहराई में ले जाती है, और वो वहीं खो जाता है, कभी वापस न लौटने के लिए, जैसे कभी मन में आया ही नहीं था....

लेखक की ओर से.....       
मेरा जन्म मशहूर हीरो-सिटी स्मोलेन्स्क में सन् 1978 में हुआ और मैं वहाँ सितम्बर 1985 तक रहा. स्मोलेन्स्क में करीब-करीब मेरे सारे रिश्तेदार रहते थे, ममा की तरफ़ से और पापा की तरफ़ के भी.
चूँकि मेरे मम्मा-पापा काम करते थे (पापा फ़ौज में थे, और मम्मा रेडिओ स्टेशन पर), और मैं नर्सरी स्कूल में जाता था, जहाँ मैं अक्सर बीमार हो जाता था, इसलिए लम्बे समय तक मैं अपने नानू-नानी के पास ही रहा. इसीलिए मेरे इस लघु उपन्यास में नानी की, परनानी की, और नानू की कहानी आई है. और व्लादिक – मेरा मौसेरा भाई है – मम्मा की बहन, स्वेता आण्टी का बेटा. उनका परिवार भी स्मोलेन्स्क में रहता था.  और वैसे, मेरी कहानियों के बाकी पात्र भी वास्तविक हैं – वे या तो उस समय हमारे कम्पाऊण्ड में रहा करते थे, या मेरे रिश्तेदारों के दोस्त थे. मैंने कोई भी काल्पनिक चीज़ नहीं लिखी है.
स्मोलेन्स्क उन दिनों एक ख़ामोश, हरियाली से लबालब शहर था, जिसमें, बुढ़ापे के कारण चरमराती हुई ट्रामगाड़ियाँ घिसटती थीं. सामूहिक फार्म के बाज़ार में हमारे मनपसंद बीज, तरबूज़ और चेरीज़ बिकते थे, और शहर के सिनेमाघरों में अलग-अलग तरह की, नई और पुरानी इण्डियन फिल्में दिखाई जाती थीं...
आज जब उस समय को मैं याद करता हूँ, तो वो मुझे जन्नत के समान लगता है, जिसे, मैं सोचता हूँ, कि कभी नहीं भूल पाऊँगा. हमारे मॉस्को आने के बाद भी, करीब सन् 1994 तक मैंने अपनी सारी छुट्टियाँ और पूरी गर्मियाँ स्मोलेन्स्क में ही बिताईं, इस जन्नत के एहसास को लम्बा करने की कोशिश में, क्योंकि वहीं मेरी असली ज़िंदगी थी. किसी और शहर और देश ने मुझे कभी आकर्षित नहीं किया, जैसे मैं कोई, इस लब्ज़ का इस्तेमाल करने से मैं डरूँगा नहीं, वहीं पर सीमित होकर रह गया था. सन् 1998 में मेरे नानू गुज़र गए ( वो ही इण्डियन फिल्म्सवाले लघु उपन्यास के पर्तोस), और जन्नत का एहसास लुप्त हो गया. मैं स्मोलेन्स्क जाता रहा, मगर ये अलग ही तरह की यात्रा होती थी.
सन् 2005 में मैंने मॉस्को स्टेट युनिवर्सिटी से जर्नलिज़्म का कोर्स पूरा किया, पहले एक प्रकाशन गृह में काम किया, फिर रेडिओ पे, मगर साथ ही मेरी ज़िंदगी में लेखकों के लिए सेमिनार्स भी होते रहे, मेरी अपनी रचनाएँ छपती रहीं, अपनी कहानियों और गीतों को भी तरह-तरह की पब्लिक के सामने प्रस्तुत करता रहा – (वैसे तो मैंने बचपन से ही लिखना शुरू कर दिया था, मगर बात एकदम बनी नहीं). मेरे लिए ख़ास तौर से मुश्किल था लेखिका मरीना मस्क्विना से, कवियत्री एवम् अनुवादक मरीना बरदीत्स्काया से, कवियत्री तात्याना कुज़ोव्लेवाया से, आलोचक इरीना अर्ज़ामास्त्सेवाया से, कवियत्री और नाटककार एलेना इसायेवा से, और बेशक एडवर्ड निकोलायेविच उस्पेन्स्की से बातचीतकरना). एडवर्ड उस्पेनस्की द्वारा मेरी रचनाओं की तारीफ़ किए जाने के बाद मुझे विश्वास हुआ कि मैं लेखक हूँ. मैं इरीना युरेव्ना कवाल्योवा को, जो लीप्की में आयोजित नौजवान लेखकों के मंच के संयोजकों में से एक हैं, जिसमें मैंने सन् 2004 में भाग लिया था, उनके विशेष प्यार भरे बर्ताव के लिए और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ.
मैंने ख़ास तौर से बच्चों के लिए लिखने की कोशिश नहीं की – बस, जो जी में आया, लिखता रहा, बल्कि बड़ों के ही लिए लिखता रहा. मगर, इसके बावजूद, मुझे बच्चों का लेखक समझने लगे. ठीक है, मैं विरोध नहीं करता.
तहे दिल से उन सबका शुक्रिया अदा करता हूँ, जो इस किताब को पढेंगे. और उन्हें, जिनको ये पसंद आएगी, ख़ुशी से अपना दोस्त समझूँगा.
हमेशा आपका
सिर्गेइ पिरिल्याएव                    


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